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कांग्रेस बहुत तेजी से अपने राजनीतिक पतन की ओर अग्रसर

कांग्रेस बहुत तेजी से अपने राजनीतिक पतन की ओर अग्रसर है। इस प्रक्रिया को रोक पाना अब कठिन दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस का क्षरण परमाणु विखंडन की प्रक्रिया जैसा हो गया है। जो एक बार शुरू हो गई तो रुकेगी नहीं। नेहरू-गांधी परिवार इस प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम कर रहा है। यानी बाड़ खेत खाने लगी है। परिवार हर वह फैसला ले रहा है जो उसे नहीं लेना चाहिए। इसकी सूची इतनी लंबी है कि गिनती कराना भी कठिन है। परिवार के फैसलों में राजनीतिक अपरिपक्वता, अदूरदर्शिता, अहंकार और एनटाइटलमेंट की भावना सब एक साथ नजर आती हैं।

कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया तो था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, पर लगता है कि इसे पूरा करने का संकल्प राहुल और प्रियंका ने लिया है। अपने हर फैसले से राहुल गांधी साबित कर रहे हैं कि पार्टी चलाना शायद उनके बस की बात नहीं है। इसमें किसी सुधार की कोई गुंजाइश भी नहीं दिख रही, क्योंकि सुधार के लिए पहली शर्त यह है कि आपको गलती स्वीकार करनी पड़ती है। गलती स्वीकार करना राहुल गांधी के या कहें कि नेहरू-गांधी परिवार के स्वभाव में ही नहीं है। इसे यों भी कह सकते हैं कि ऐसा करना परिवार के लोग अपनी हेठी मानते हैं, क्योंकि मान्यता तो यही है कि राजा कभी कुछ गलत कर ही नहीं सकता।

पंजाब में कांग्रेस छह महीने पहले जीतती हुई लग रही थी। तीन महीने पहले लगने लगा कि शायद अब भी जीत सकती है। अब लग रहा है कि पहले नंबर पर तो नहीं ही रहेगी। इतनी तेजी से पार्टी की स्थिति बिगाड़ने के लिए विशेष प्रयास की जरूरत थी। इसलिए पार्टी हाईकमान ने नवजोत सिंह सिद्धू को मैदान में उतारा। सिद्धू ने काम पूरा कर दिया है, पर वह वहीं नहीं रुके। सिद्धू ने अब सीधे हाईकमान को ही चुनौती दे दी है। हाईकमान के हाथ-पैर फूल गए हैं। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से कहा जा रहा है कि वह मामले को हल करें। सिद्धू को समझ में आ गया है कि उनका खेल खत्म हो गया है। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता बंद हो गया है। जो बात सिद्धू को बर्दाश्त नहीं हुई, वह यह कि चन्नी रबर स्टैंप बनने को तैयार नहीं हैं। इससे भी बुरी बात यह कि गांधी परिवार चन्नी के साथ खड़ा हो गया है। सिद्धू के अंदर की असुरक्षा कुलांचे मार रही है। सो उन्हें लगा कि इससे निकलने का एक ही रास्ता है, हाईकमान की सत्ता को ही चुनौती दी जाए। सवाल है कि अब गांधी परिवार सिद्धू का क्या करेगा? उनसे न निगला जा रहा है और न उगला। सिद्धू का इस्तीफा मंजूर करना नहीं चाहते और सिद्धू के सामने झुकने को तैयार नहीं दिखते।

सिद्धू ने अपनी हरकत से दो और काम किए हैं। एक मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का कद बढ़ा दिया है। दूसरे राहुल और प्रियंका का आभामंडल क्षीण कर दिया है। यह गतिरोध तोड़ने के लिए अब सिद्धू को गांधी परिवार से नहीं मुख्यमंत्री चन्नी से बात करनी होगी। समय का फेर देखिए कि कुछ दिन पहले तक चन्नी, सुनील जाखड़ और सुखजिंदर सिंह रंधावा जैसे नेता कैप्टन के खिलाफ सिद्धू के साथ थे, पर अब वे सब सिद्धू के विरोध में खड़े हैं।

उधर पंजाब में आग लगी थी और इधर दिल्ली में कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के आगमन की पार्टी चल रही थी। हालांकि जिग्नेश अपनी विधानसभा सदस्यता बचाने के लिए औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल नहीं हुए, परंतु संख्या कितनी भी बड़ी हो उसमें जीरो जोड़ने से कुछ बढ़ता नहीं है। कन्हैया कुमार की पहचान क्या है? आतंकी अफजल गुरु के समर्थन और देश विरोधी नारों के मामले में कन्हैया पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है। जिग्नेश कांग्रेस के समर्थन से विधानसभा चुनाव जीते थे। इसके अलावा उनकी और कोई उपलब्धि नहीं। तो क्या कांग्रेस उधार के सिंदूर से अपनी मांग भरना चाहती है?

सभी पार्टियों में बाहर से लोग आते हैं। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन सवाल है कि जिसे ले रहे हैं, उसकी अपनी कोई जमीन है कि नहीं? बिना जमीन वाला नेता सिर्फ बोझ बनता है। बोझ उठाने वाला नहीं। कांग्रेस को इस समय ऐसे नेताओं की जरूरत है जो उसका जनाधार बढ़ाने में मदद करें। कन्हैया बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़े। देश भर से उनके समर्थन में लोग जुटे। उसके बावजूद साढ़े चार लाख वोट से हारे। चुनाव में हार-जीत होती रहती है। सवाल है कि हारने के बाद क्या किया? राहुल गांधी ने गलती की थी, जब कन्हैया और उनके साथियों के समर्थन में जेएनयू गए। उसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को उठाना पड़ा। उससे बड़ी गलती की है कन्हैया को पार्टी में लेकर। क्या जो भारत के विरोध में खड़े हैं, कांग्रेस में उनका स्वागत है? जिग्नेश ने विधायक बनने के बाद से चार साल में ऐसा कुछ नहीं किया, जिसके आधार पर कहा जा सके कि उनके कांग्रेस में आने से पार्टी को कोई फायदा होगा।

गुजरात में दलितों की आबादी कुल आबादी का सात फीसद है। उसमें भी जिग्नेश का कोई प्रभाव नहीं है। वह कांग्रेस समर्थन के बिना अपनी सीट तक नहीं जीत सकते। कांग्रेस से जुड़ने पर कन्हैया और जिग्नेश को तो फायदा हुआ है, लेकिन कांग्रेस को क्या फायदा हुआ है, यह समझना कठिन है। हां, नुकसान होता हुआ जरूर दिख रहा है। दरअसल ये फ्रीलांसर टाइप नेता हमेशा संगठन के लिए बोझ होते हैं। हार्दिक पटेल को देखिए। हार्दिक को कांग्रेस में आए ढाई साल हो गए। उसके बाद से गुजरात में कांग्रेस की हार का सिलसिला रुकने के बजाय और तेज हुआ है। गुजरात कांग्रेस के नेताओं ने अभी तक हार्दिक को स्वीकार नहीं किया है। गुजरात में कांग्रेस चुनाव तो छोड़िए अपनी पार्टी की राज्य इकाई का पुनर्गठन पिछले ढाई साल से नहीं कर पाई। पार्टी का कोई प्रदेश प्रभारी, अध्यक्ष या विधायक दल का नेता नहीं है।

इंदिरा गांधी ने 1967 के बाद कांग्रेस का बौद्धिक पक्ष वामदलों को आउटसोर्स कर दिया था। अब राहुल गांधी पूरी पार्टी को ही वामपंथ के हवाले कर रहे हैं। इसमें भी कोई समस्या नहीं होती, यदि यह काम एक सुविचारित नीति के तहत होता। बस ऐसा हो रहा है। क्यों हो रहा है, किसी को पता नहीं। जानने में किसी की दिलचस्पी भी नहीं दिखती।