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MVA Crisis: स्पीकर की निष्पक्षता पर लगातार उठते रहे हैं सवाल, सुप्रीम कोर्ट पहुंचे मामलों की लिस्ट है लंबी

नई दिल्ली। सदस्यों की अयोग्यता तय करना हो या मूल पार्टी से अलग हुए गुट को पृथक मान्यता देना हो, स्पीकर की निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों के अलावा कोर्ट ने भी कई बार स्पीकर के व्यवहार पर उंगली उठाई है। यहां तक कि स्पीकर के तटस्थ न रहने की शिकायतों और राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार व हार्स ट्रेडिंग में लिप्त होने के रवैये को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट संसद से इन अलोकतांत्रिक गतिविधियों को रोकने के लिए सदस्यों की अयोग्यता संबंधी संवैधानिक प्रविधान के कुछ पहलुओं को मजबूत करने पर विचार करने को भी कह चुका है। इसके लिए कोर्ट सदस्यों की अयोग्यता तय करने के लिए नया तंत्र स्थापित करने और इसके लिए संविधान में संशोधन करने तक का सुझाव संसद को दे चुका है

संविधान में स्पीकर को तटस्थ और स्वतंत्र अथारिटी के रूप में स्थापित किया गया है

वैसे तो हाल फिलहाल उम्मीद नहीं दिखती कि विधायिका इस दिशा में कुछ करेगी। महाराष्ट्र में फिलहाल डिप्टी स्पीकर को सुप्रीम कोर्ट ने बागी विधायकों पर कोई फैसला लेने से रोक दिया है। वैसे तो संविधान में स्पीकर को तटस्थ और स्वतंत्र अथारिटी के रूप में स्थापित किया गया है और उससे निष्पक्ष कार्यवाही की अपेक्षा की जाती है लेकिन स्पीकर किसी न किसी राजनीतिक दल से संबद्ध होता है ज्यादातर स्पीकर बहुमत वाले दल का सदस्य होता है। स्पीकर की निष्पक्षता और आचरण पर सवाल उठाने वाले सुप्रीम कोर्ट पहुंचे मामलों की लिस्ट लंबी है।

2003 में उत्तर प्रदेश में बसपा के 13 विधायकों ने सपा का दामन थाम लिया था। बसपा ने इन विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए स्पीकर के यहां याचिका दी। स्पीकर ने इसे लटका दिया। बाद में बसपा के 24 विधायक टूटे। इस तरह 37 विधायक हुए तो उन्होंने लोकतांत्रिक बहुजन दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली। ये विधायक उस वक्त बसपा के कुल सदस्यों के एक तिहाई थे, जिससे वे दल बदल कानून के दायरे नहीं आए। स्पीकर ने इस दल को अलग दल की मान्यता दे दी थी।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर के निर्णय को माना था गलत

यह मामला हाई कोर्ट होता हुआ सुप्रीम कोर्ट आया था। सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में स्पीकर द्वारा विधायकों की अयोग्यता की शिकायत पर फैसला न देने और उसे टाले रखने को गलत माना था। इसी तरह कर्नाटक में विधायकों की अयोग्यता का मसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और कोर्ट ने उस मामले में 13 नवंबर, 2019 को दिए फैसले में स्पीकर की निष्पक्षता को लेकर कड़ी टिप्पणियां की थीं।

मणिपुर में 2017 में चुनाव के बाद कांग्रेस की टिकट पर जीत कर आए विधायक के भाजपा में शामिल होकर सरकार को समर्थन देने और सरकार में मंत्री बनने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट आया था। उस मामले में कांग्रेस ने पार्टी छोड़ने वाले विधायक की अयोग्यता के लिए स्पीकर के समक्ष याचिका दी, लेकिन स्पीकर ने उसे लटकाए रखा जिसके बाद मामला हाई कोर्ट होता हुआ सुप्रीम कोर्ट आया था। उस फैसले में भी कोर्ट ने स्पीकर के आचरण पर सवाल उठाए थे।

कोर्ट ने संसद से इस मामले पर विचार करने को कहा था

मणिपुर मामले में 21 जनवरी, 2020 को दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद इस पर पुनर्विचार करे कि क्या सदस्यों की अयोग्यता का काम स्पीकर के पास रहना चाहिए, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक पार्टी से संबंध रखता है। संसद गंभीरता से इस पर विचार कर सकती है कि संविधान संशोधन कर सदस्यों की अयोग्यता का मुद्दा तय करने का काम स्पीकर के बजाए एक स्थाई स्वतंत्र निकाय गठित कर उसे सौंप दिया जाए ताकि ऐसे विवादों का जल्दी और निष्पक्षता से निस्तारण सुनिश्चित हो। इससे सदस्यों की अयोग्यता संबंधी दसवीं अनुसूची के प्रविधानों को ताकत मिलेगी जो कि लोकतंत्र के बेहतर ढंग से काम करने के लिए बहुत जरूरी है।